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वसुंधरा का दोहन आखिर कब तक ?

जनवाणी
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विकास की अंधी दौड़ में हम मंगल और चन्द्रमा पर आशियाना बनाने के सपने देख रहे हैं, लेकिन इस आपाधापी में पृथ्वी को भूल रहे हैं। आज पृथ्वी के बेहतरी लिए गंभीरता से कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है। एक ओर हम वातावरण में कार्बन बढ़ाने वाले स्त्रोत बढ़ाते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कार्बन सोखने वाले पेड़ों का धड़ल्ले से सफाया हो रहा हैं। आज दुनिया भर में जंगल बहुत तेजी और बेरहमी से काटे जा रहे हैं। हरे-भरे पेड़ कहीं प्राकृतिक आपदा की भेंट चढ़ रहे हैं तो कहीं विकास के नाम पर साफ हो रहे हैं। ऐसे में सवाल लाजमी है कि विकास की जिस राह मानव समाज चल रहा है वह कितना सुरक्षित है।
आज इस विषय पर इसलिए बात की जा रही है, क्योंकि 22 अप्रैल को पृथ्वी को खत्म होने से बचाने और इसे साफ रखने के लिए अर्थ डे यानी पृथ्वी दिवस मनाया जाता है। दरअसल पूरी दुनिया पर ग्लोबल वार्मिंग का खतरा मंडराते देख 22 अप्रैल, 1970 को आधुनिक पर्यावरण आंदोलन की शुरुआत की गई। पर्यावरण का सवाल जब तक तापमान में बढ़ोतरी से मानवता के भविष्य पर आने वाले खतरों तक सीमित रहा, तब तक विकासशील देशों का इसकी ओर उतना ध्यान नहीं गया, लेकिन अब जलवायु चक्र का खतरा खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ रहा है। नतीजतन किसान यह तय नहीं कर पा रहे कि कब बुआई करें और कब फसल काटें। पृथ्वी से खिलवाड़ का ही परिणाम है कि लेह में आए जलजले और जापान के महाविनाश में हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। इन हादसों के बाद से कुछ ही देश इस खतरे की अनदेखी करने का साहस कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में यदि पर्यावरण पर सामूहिक प्रयासों के लिए हम जोर लगाते हैं तो उसका सबसे ज्यादा लाभ भी हमें ही मिलेगा। एक अहम् सवाल यह भी है कि पर्यावरणवादियों को क्लीन एयर एक्ट, क्लीन वॉटर एक्ट, खतरे में पड़ी प्रजातियों के लिए कानून जैसी कई सफलताएं मिली हैं. लेकिन 41 साल बाद भी पर्यावरण के लिए एक नीति बनाने पर अभी तक कोई सफल नहीं हो सका है। पृथ्वी दिवस मनाने के पीछे मूल उद्देश्य यह है कि मानव जीवन को बेहतर बनाया जाएं। सवाल है कि जीवन बेहतर कैसे बने। साफ हवा और पानी बेहतर जीवन की पहली प्राथमिकता है, लेकिन आज हवा और पानी ही सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं। प्रकृति से अंधाधुंध छेड़छाड़ के चलते पृथ्वी का तापमान बढ़ता जा रहा है तथा वातावरण में कार्बन की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़ गई है। इसके लिए औद्योगिक इकाइयां और डीजल पेट्रोल से चलने वाले असंख्य वाहन सबसे अधिक जिम्मेदार हैं, लेकिन वाहनों की बढ़ती संख्या कम करने के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाया जाना भी अपने आप में एक बड़ा सवाल है। एक आंकड़े के मुताबिक पृथ्वी इस समय 75 करोड़ वाहनों का भार सह रही है, इसमें हर साल 5 करोड़ नये वाहन जुड़ रहे हैं। मानव अपनी हितपूर्ति के लिए पृथ्वी का बेपनाह दोहन कर रहा है। आज पृथ्वी का कोई क्षेत्र ऐसा बाकी नही बचा है, जो मानव की नाइंसाफी का शिकार न हुआ हो। आखिरकार कब तक हम स्वार्थपूर्ति के लिए धरा का दोहन करते रहेगे?

वसुंधरा
वसुंधरा

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